हिंदी, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय शिक्षा नीति: बहुभाषिकता के आलोक में एक विमर्श

 

प्रदीप ढेडिया

(ट्रस्टी-समर्पण ट्रस्ट एवं सुप्रसिद्ध उद्योगपति व समाजसेवी)

कोलकाता:हर वर्ष 14 सितम्बर से 30 सितम्बर तक मनाया जाने वाला हिंदी पखवाड़ा न केवल भाषायी चेतना का पर्व है, बल्कि यह राष्ट्र के आत्मबोध का प्रतीक भी बन चुका है। हिंदी महज़ एक भाषा नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति, सभ्यता और अस्मिता की संवाहक है। इस पखवाड़े के दौरान देशभर में सरकारी और गैरसरकारी संस्थानों, स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में विविध गतिविधियों का आयोजन किया जाता है, जिनका मूल उद्देश्य हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करना और जनमानस में उसकी स्वीकार्यता को और सुदृढ़ करना है।

संविधान सभा ने 14 सितम्बर 1949 को हिंदी को भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया। यह दिन आज हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। यद्यपि हिंदी को संवैधानिक रूप से 'राजभाषा' का दर्जा प्राप्त है, तथापि जनमानस में इसकी भूमिका राष्ट्रभाषा के रूप में अधिक सशक्त और व्यापक है। हिंदी देश के उत्तर भारत से लेकर पूर्वोत्तर, पश्चिमी भारत से लेकर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड और राजस्थान तक करोड़ों भारतीयों की मातृभाषा है। हिंदी सिनेमा, साहित्य, टेलीविजन और सोशल मीडिया के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर संवाद और एकता का माध्यम बन चुकी है।

वर्तमान केंद्र सरकार, विशेषतः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हिंदी भाषा के संवर्धन को एक नये स्तर पर ले जाया गया है। सरकारी दस्तावेजों, मंत्रालयों की वेबसाइटों, विदेशी मंचों पर हिंदी में वक्तव्य देने जैसी पहलों ने यह स्पष्ट किया है कि सरकार हिंदी को केवल एक भाषाई संसाधन नहीं, बल्कि एक राष्ट्रीय सांस्कृतिक धरोहर के रूप में देखती है।

2020 में घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) भारत की शिक्षा प्रणाली में एक ऐतिहासिक बदलाव का दस्तावेज है। यह नीति समावेशी, बहुभाषिक और भारतीय भाषाओं के प्रति संवेदनशील शिक्षा व्यवस्था की नींव रखती है। नीति में स्पष्ट कहा गया है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा, क्षेत्रीय भाषा या हिंदी मंत दी जानी चाहिए। इससे बच्चों की संज्ञानात्मक क्षमता, तार्किक विकास और भावनात्मक जुड़ाव में वृद्धि होगी। यह प्रावधान शिक्षा के भारतीयकरण की दिशा में एक सार्थक प्रयास है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति बहुभाषिकता को बढ़ावा देती है और इसमें हिंदी की भूमिका महत्वपूर्ण बन जाती है। यह बहुभाषिकता किसी भाषा के विरोध में नहीं, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के समुचित विकास और पारस्परिक सम्मान की भावना को बढ़ाने के उद्देश्य से है।

भारत विविध भाषाओं का देश है, और यही उसकी शक्ति है। बहुभाषिकता के समर्थन का अर्थ यह नहीं कि हिंदी की उपेक्षा की जाए, बल्कि इसका मतलब है कि हिंदी समेत सभी भाषाओं को उनका सम्मानपूर्ण स्थान मिले।

हिंदी, जो कि संपर्क भाषा के रूप में देश के विभिन्न हिस्सों में स्वीकृत है, बहुभाषिक भारत के लिए एक सेतु का कार्य करती है। दक्षिण और उत्तर भारत, पूरब और पश्चिम के बीच संवाद का माध्यम हिंदी बन सकती है, यदि इसे सादगी, सहजता और समावेशिता के साथ प्रस्तुत किया जाए।

नई शिक्षा नीति का कार्यान्वयन तभी सफल होगा जब हम हिंदी को सिर्फ एक विषय के रूप में न पढ़ाकर ज्ञान की भाषा के रूप में विकसित करें। इसके लिए जरूरी है कि विज्ञान, गणित, सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों की पाठ्यपुस्तकें गुणवत्तापूर्ण हिंदी में उपलब्ध कराई जाएं। साथ ही, शिक्षक प्रशिक्षण, तकनीकी शब्दावली का निर्माण, डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर हिंदी सामग्री का विकास और शिक्षा में हिंदी माध्यम को बढ़ावा देने वाले उपायों पर समुचित कार्य किया जाए। इससे न केवल हिंदी भाषी छात्रों का आत्मविश्वास बढ़ेगा, बल्कि शिक्षा में क्षेत्रीय असमानताओं को भी दूर किया जा सकेगा।

हिंदी भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक परंपरा की संवाहक है। तुलसीदास, कबीर, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, दिनकर से लेकर आज के समकालीन रचनाकारों तक हिंदी साहित्य ने भारतीय समाज की आत्मा को स्वर दिया है। नई शिक्षा नीति यदि हिंदी साहित्य को शिक्षा के मूल केंद्र में रखे, तो छात्रों में संवेदनशीलता, मूल्यबोध और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना का भी विकास होगा।

समर्पण ट्रस्ट जैसे संस्थानों की भूमिका इस दिशा में अत्यंत सराहनीय है। विगत वर्षों से यह संस्था हिंदी पखवाड़ा के अंतर्गत विभिन्न रचनात्मक, शैक्षिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन कर रही है। इस वर्ष कोलकाता में आयोजित “राष्ट्रीय शिक्षा नीति में बहुभाषिकता और हिंदी: संभावनाएं व कार्यान्वयन” विषयक सेमिनार निश्चित ही इस विमर्श को नई ऊँचाइयाँ देगा। कोलकाता जैसे बहुभाषिक महानगर में हिंदी को केंद्र में रखकर ऐसा विमर्श करना न केवल सामयिक है, बल्कि भाषायी एकता के सूत्रों को मजबूत करने की दिशा में एक प्रेरणादायक पहल भी है।

हिंदी पखवाड़ा महज़ एक प्रतीकात्मक आयोजन न बनकर, यदि भाषायी चेतना और शैक्षिक नवाचारों का जनआंदोलन बन जाए, तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी न केवल राजभाषा बल्कि पूरे भारत की लोकभाषा और ज्ञानभाषा के रूप में स्थापित होगी।

नई शिक्षा नीति और संस्थाओं की पहल इस दिशा में आशा की किरणें लेकर आई हैं। आवश्यकता है तो केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति, सामाजिक सहयोग और शैक्षिक प्रतिबद्धता की,ताकि हिंदी राष्ट्र की आत्मा को स्वर दे सके और बहुभाषिक भारत के सपने को साकार कर सके।

Post a Comment

Previous Post Next Post