बिहार में बैनर-पोस्टर से झांकती RJD व JDU की गुटबाजी, जुबान के बदले प्रतीकों का सहारा ले रहे नेता

मुख्य विपक्षी दल राष्‍ट्रीय जनता दल (RJD) और सत्ताधारी जनता दल यूनाइटेड (JDU) की आंतरिक गुटबाजी (infight) इन दिनों बैनर और पोस्टर के अलावा इंटरनेट मीडिया की खिड़कियों से बाहर झांकने लगी है। छात्र आरजेडी के बैनर से विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) का चेहरा गायब हो गया। उधर, केंद्रीय मंत्री व जेडीयू के पूर्व अध्‍यक्ष आरसीपी सिंह (RCP Singh) के स्वागत के लिए बैनर बनाते समय जेडीयू के प्रदेश महासचिव अभय कुशवाहा (Abhay Kushwaha) को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ  ललन सिंह (Lalan Singh) का चेहरा याद नहीं रहा। दोनों दलों में सफाई का दौर जारी है। भरपाई की कोशिश चल रही है। जेडीयू प्रदेश कार्यालय के बाहर से ऐसे बैनर हटा दिए गए हैं, जिनमें ललन सिंह की तस्वीर नहीं थी। तेज प्रताप यादव (Tej Pratap Yadav) भी बता रहे हैं कि बैनर पर नहीं है तो क्या हुआ? तेजस्वी की तस्वीर तो उनके दिल में है। दरअसल, यह सब अनायास नहीं हो रहा है। दिलों में भरी गुटबाजी जुबान के बदले प्रतीकों के सहारे बाहर निकल रही है।

तेज प्रताप की स्थायी नाराजगी

तेज प्रताप यादव आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव के बड़े पुत्र हैं। व्यवहारिक तौर पर छोटे पुत्र तेजस्वी यादव को पार्टी की बागडोर सौंप दी गई है। बस, औपचारिक घोषणा बाकी है। 2019 के लोकसभा और 2020 के विधानसभा चुनावों में आरजेडी के टिकटों के बंटवारे में मुख्य भूमिका तेजस्वी यादव ने ही निभाई। विधानसभा चुनाव में आरजेडी की 75 सीटों पर जीत हुई। अब लालू प्रसाद यादव के समर्थकों ने तेजस्वी यादव को नेता मान लिया है।

आरजेडी में तेज प्रताप यादव की बात करें तो लोकसभा चुनाव में ही उनकी नाराजगी सामने आई। उन्होंने दो लोकसभा सीटों- शिवहर और जहानाबाद में पार्टी की हार की गारंटी कर दी। विधानसभा चुनाव में तेज प्रताप की सिफारिश पर बमुश्किल दो-तीन लोगों को उम्मीदवार बनाया गया। तेज प्रताप जब-तब अपनी नाराजगी का इजहार करते रहते हैं। उनके समर्थक ऐसे मुद्दों की खोज करते हैं, जिनसे दोनों भाइयों में तकरार बढ़े। रविवार को छात्र आरजेडी के कार्यक्रम को लेकर बनाए गए बैनर पर तेजस्वी यादव फोटो न रहना और कार्यक्रम में तेज प्रताप द्वारा प्रदेश आरजेडी अध्यक्ष जगदानंद सिंह को हिटलर बताना ऐसे ही मुद्दे हैं। तेज प्रताप के लिए सबसे तकलीफदेह स्थिति यह है कि उन्हें कोई गंभीरता से नहीं लेता है। उनके आस-पास के लोगों की भी यही स्थिति है।

समर्थकों को रास नहीं आ रही आरसीपी की विदाई

जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से आरसीपी सिंह की विदाई उनके समर्थकों को रास नहीं आ रही है। उनकी तकलीफ नए अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह के स्वागत में जुटी भारी भीड़ से और बढ़ गई है। वे भीड़ का जवाब बड़ी भीड़ से देना चाहते हैं। ललन सिंह कह रहे हैं कि वे समता पार्टी के उन कार्यकर्ताओं को सक्रिय करेंगे, जो किसी वजह से शिथिल पड़ गए हैं। यह घोषणा जेडीयू के उन नेताओं के मन में असुरक्षा का भाव पैदा कर रही है, जो बाद में जुड़े और पुराने को दरकिनार कर संगठन में महत्वपूर्ण पदों पर बैठ गए हैं। इतना ही नहीं, टिकटों के बंटवारे में भी नए लोगों को तरजीह दी गई।

ललन सिंह 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही संगठन से अलग हो गए थे। राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से पहले तक जेडीयू में वे निर्णायक भूमिका में नहीं रहे। अब उनके हाथ में कमान है तो वे संगठन को मजबूती के लिहाज से 2009-10 के स्तर पर ले जाना चाहते हैं। 2009 के लोकसभा में 20 और अगले साल के विधानसभा चुनाव में 115 सीटों पर जेडीयू की जीत हुई थी। बेशक उसमें नीतीश कुमार के शासन का बड़ा योगदान था, लेकिन इन चुनावों के ठीक पहले तक प्रदेश अध्यक्ष के पद पर ललन सिंह के रहने के कारण जीत का थोड़ा श्रेय संगठन को भी दिया गया। 2010 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के खिलाफ प्रचार किया था।

ललन सिंह के संगठन से अलग होने के तुरंत बाद आरसीपी सिंह राजनीति में प्रत्यक्ष तौर पर सक्रिय हुए। वे 2010 में राज्यसभा सदस्य बने। राज्यसभा में उनकी दूसरी पारी है। अध्यक्ष बनने से पहले वे जेडीयू के राष्ट्रीय महासचिव थे। इस दौर में उन्होंने बड़े पैमाने पर नए लोगों को संगठन से जोड़ा। युवाओं-महिलाओं के अलावा अन्य वर्गों के लोग जेडीयू से जुड़े। संगठन को मजबूत करने के लिए उन्होंने राज्य में कई यात्राएं की। बूथ स्तर पर जेडीयू की कमेटियां बनी। ये उपलब्धियां इनके खाते में है। चुनावी परिणाम दिलाने में उन्हें अधिक कामयाबी नहीं मिली। उनकी लंबी यात्रा के बाद पिछले साल एक मार्च को गांधी मैदान में आयोजित जेडीयू की रैली में इतनी कम भीड़ जुटी कि उसे कार्यकर्ता सम्मेलन का नाम दे दिया गया। बीच के चुनावों में भी जेडीयू का ग्राफ सुधरा नहीं। 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी से दोस्ती के बाद जेडीयू की 16 सीटों पर जीत हुई थी।  यह सिलसिला 2020 के विधानसभा चुनाव में कायम नहीं रह सका। 71 विधायकों के साथ चुनाव में गया जेडीयू महज 43 सीटें बचा पाया। खैर, इस परिणाम के लिए आरसीपी के नेतृत्व को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता है। जेडीयू हार का कारण कुछ और बता रहा है।

अधिक दिनों तक नहीं टिकेगा विवाद

आकलन है कि जेडीयू का ताजा विवाद अधिक दिनों तक नहीं टिकेगा, क्योंकि अंतत: मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही इस दल के सर्वेसर्वा हैं और उनके निर्देश या सलाह की अनदेखी करना ललन सिंह या आरसीपी के लिए संभव नहीं है। फिर भी जेडीयू में दो समूह तो बन ही गए हैं। एक वह जिनकी उम्मीदें ललन सिंह के अध्यक्ष बनने से बढ़ गई हैं। जाहिर है, दूसरे वे लोग हैं, जो खुद को संगठन से अधिक आरसीपी के करीबी मानते हैं। वे आशंका में हैं कि कहीं उनकी पूछ कम तो नहीं हो जाएगी। इन्हीं लोगों को बैनर-पोस्टर बनाते समय ललन सिंह का चेहरा याद नहीं रहा।


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