तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी विधान परिषद के नाम पर भी ‘खेला’ करने की तैयारी में

विधानसभा चुनाव में ‘खेला होबे’ यानी ‘खेल होगा’ का नारा बुलंद कर जीत दर्ज करने के बाद अब मुख्यमंत्री व तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी विधान परिषद के नाम पर भी ‘खेला’ करने की तैयारी में हैं। लगातार तीसरी बार सत्ता में आने के तुरंत बाद उन्होंने कैबिनेट की बैठक में विधान परिषद गठित करने पर मुहर लगाने के बाद गत छह जुलाई को विधानसभा में भी प्रस्ताव पारित करा लिया। अब अन्य प्रक्रियाएं भी पूरी की जा रही हैं। परंतु यहां सवाल यह उठ रहा है कि आखिर 52 साल बाद फिर से बंगाल में विधान परिषद गठित करने की जरूरत क्यों पड़ी?

बंगाल में 1969 में विधान परिषद समाप्त कर दिया गया था। इसके बाद फरवरी, 2021 तक इसकी जरूरत महसूस नहीं हुई, लेकिन मार्च, 2021 के विधानसभा चुनाव में पार्टी प्रत्याशियों की सूची जारी करते हुए ममता ने घोषणा कर दी कि जिन्हें टिकट नहीं दिया जा रहा है, उन सभी को विधान परिषद गठित कर उसका सदस्य बनाया जाएगा। उस समय माना गया था कि ऐसा पार्टी में बगावत रोकने के लिए कहा जा रहा है। इससे पहले वर्ष 2011 में भी ममता ने विधान परिषद गठित करने की बात कही थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। प्रस्ताव पारित हो चुका है और अब इसे केंद्र सरकार के पास भेजने की तैयारी हो रही है। यहीं से असली खेल शुरू होने के आसार हैं।

केंद्र के साथ ममता के संबंध कैसे हैं, यह जगजाहिर है। हर मुद्दे पर मोदी सरकार के खिलाफ वह मुखर रहती हैं। ऐसे में विधान परिषद के प्रस्ताव पर केंद्र सरकार ‘धीरे चलो’ की नीति अपना सकती है। कई वर्ष पूर्व पश्चिम बंगाल का नाम बदलने के लिए विधानसभा से प्रस्ताव पारित करवा कर ममता सरकार ने केंद्र को भेजा था, लेकिन आज तक नाम परिवर्तन नहीं हो सका है। अगर ऐसा ही हाल विधान परिषद के प्रस्ताव का हुआ तो ममता एक ओर इसे बंगाल की अस्मिता से जोड़कर केंद्र सरकार के खिलाफ मुद्दा बना सकती हैं, वहीं दूसरी ओर अपने नेताओं को कहेंगी कि केंद्र की वजह से वह अपना वादा पूरा नहीं कर पा रही हैं।

यही नहीं, जब प्रस्ताव पारित हुआ था, तब ममता ने कहा था कि वाममोर्चा का विधानसभा में एक भी सदस्य नहीं है। अगर विधान परिषद गठित होता है तो उसमें उन्हें जरूर सदस्य के रूप में लाया जाएगा। मुख्यमंत्री के इस बयान में भी सियासी स्वार्थ निहित है। उन्हें पता है कि इस बार वामपंथी वोट भी उन्हें मिले हैं इसलिए उन्हें आगे भी जोड़े रखने व इस मुद्दे पर वाम नेताओं का समर्थन प्राप्त करने का भी यह सहानुभूति संदेश हो सकता है। हालांकि राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यदि मंजूरी मिल भी जाती है तो विधान परिषद आíथक बदहाली ङोल रहे बंगाल के लिए एक और बोझ होगा। पहले से ही राज्य पर चार लाख करोड़ से अधिक के ऋण का बोझ है। हालत यह है कि सरकारी कíमयों के वेतन व पेंशन भुगतान के लिए भी ऋण लेना पड़ता है। लिहाजा भाजपा ने विधानसभा में इस प्रस्ताव का विरोध किया था। माकपा व कांग्रेस के भी कई नेता हैं, जिनका कहना है कि इसकी जरूरत नहीं है।

वैसे बंगाल में विधान परिषद का इतिहास कुछ इस तरह रहा है। वर्ष 1935 के भारत सरकार के एक्ट में बंगाल को दो सदनों में बांटा गया, जिसमें विधान परिषद और विधानसभा शामिल थे। विधानसभा का कार्यकाल पांच साल और सदस्यों की संख्या 250 की गई थी जबकि काउंसिल के सदस्यों की संख्या 63 से कम नहीं और 65 से ज्यादा नहीं हो सकती थी। हर तीन साल बाद एक तिहाई सदस्यों का कार्यकाल खत्म होता था, परंतु आजादी के बाद 1952 में बंगाल में विधानसभा और विधान परिषद की व्यवस्था रखी गई। इसमें 51 सदस्यों वाले बंगाल विधान परिषद का गठन पांच जून, 1952 को किया गया और विधानसभा में सदस्यों की संख्या 240 थी, जिनमें एंग्लो-इंडियन समुदाय के दो मनोनीत सदस्य शामिल थे। इसके बाद संयुक्त मोर्चा की सरकार ने 21 मार्च, 1969 में बंगाल से विधान परिषद को खत्म कर दिया। बंगाल में यदि विधान परिषद गठित होगा तो नियमों के मुताबिक 294 विधानसभा सीटों वाले इस राज्य में अधिकतम विधान परिषद के 98 सदस्य होंगे। यह विधानसभा में पहुंचने का पिछला दरवाजा है।

इस समय जिन छह राज्यों में विधान परिषद हैं, उनमें से तीन राज्यों के मुख्यमंत्री विधान परिषद के सदस्य हैं। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और बिहार में नीतीश कुमार विधानसभा चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री नहीं बने हैं। ममता भी अभी विधानसभा सदस्य नहीं हैं। अगर विधान परिषद होता तो उन्हें भी चुनाव लड़ने की जरूरत नहीं होती।


Post a Comment

Previous Post Next Post