Bengal Chunav: भाजपा के अभियान के कारण ममता दीदी को अपना रवैया बदलने के लिए होना पड़ा मजबूर

Bengal Chunav: आगामी बंगाल विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने अपनी ओर से पूरी ताकत झोंक दी है। लोकसभा चुनाव में शानदार प्रदर्शन, उसके पूर्व पंचायत चुनावों में तृणमूल को सशक्त चुनौती, आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर उसकी उम्मीदों को ठोस आधार प्रदान करते हैं। यही स्थिति एक समय ममता बनर्जी के तृणमूल की थी जिसने वाममोर्चा के खिलाफ आक्रामक राजनीतिक अभियान चला रखा था।

माकपा के नेतृत्व वाले वामदलों को इसका अनुमान भी नहीं था कि उनका लाल दुर्ग कभी ढहेगा भी। ममता की राजनीति ने उसे ढाह दिया और ऐसा ढाहा कि वामपंथी अभी तक कराह रहे हैं। भाजपा को भी लगता है कि वह 2011 में ममता की विजय सदृश कारनामा कर सकती है। तृणमूल के नेताओं का भाजपा में प्रवेश की प्रक्रिया लगातार बढ़ रही है। गृह मंत्री अमित शाह की हालिया बंगाल यात्र के दौरान नौ विधायकों और एक सांसद का भाजपा में प्रवेश हुआ। तो बंगाल के राजनीतिक परिदृश्य के संकेतों को कैसे पढ़ा जाए?

चुनाव नजदीक आने के साथ नए समीकरण भी बन रहे हैं। कांग्रेस ने वामदलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की घोषणा की तो वहीं ममता के समर्थक रहे फुरफुरा शरीफ दरगाह के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी तृणमूल के विरोध में आ चुके हैं। भाजपा ने बंगाल का राजनीतिक माहौल किस कदर बदला है इसका प्रमाण लोकसभा चुनाव में मिला। भाजपा ने 40.7 प्रतिशत मत पाकर 18 सीटें जीत लीं जबकि 2014 में उसे केवल दो सीटें मिली थीं। उसके बाद से ही ममता और उनके साथियों-समर्थकों के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंचना स्वाभाविक है।

इस बीच बंगाल का लाल दुर्ग अब इतिहास का विषय हो गया। वर्ष 2019 में वाम मोर्चा 6.34 प्रतिशत मत तक सिमट गया। कांग्रेस भी 2019 में 5.67 प्रतिशत मत की पार्टी रह गई है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करें तो भाजपा को 122 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त थी, जबकि तृणमूल को 163 और कांग्रेस को नौ पर। वामदलों को एक सीट पर भी बढ़त नहीं मिली थी। वर्ष 2016 का विधानसभा चुनाव वामदलों व कांग्रेस ने साथ मिलकर लड़ा था, लेकिन वो ममता के गढ़ को भेद नहीं सके। वामदलों के साथ अब मूलत: वही मतदाता हैं जो उनकी विचारधारा के प्रति समíपत हैं या उसे अच्छा मानते हैं। कांग्रेस का तो कोई कोर मतदाता है ही नहीं। प्रदेश की राजनीतिक धारा को परखने वाले जानते हैं कि इस गठबंधन को लेकर आम जनता में कोई उत्साह नहीं है। यह संभव है कि ममता बनर्जी और उनके साथियों से असंतुष्ट वैसे मतदाता जो भाजपा को पसंद नहीं करते, वे इस गठबंधन के साथ जा सकते हैं।

बंगाल में मुस्लिम मत एक बड़ा कारक है। राज्य में मुसलिम मतदाताओं की संख्या 30 प्रतिशत के आसपास होने का अनुमान है। लेकिन इनकी आबादी प्रदेश में समान रूप से फैली हुई नहीं है। पहाड़ी और जंगलमहल क्षेत्रों में मुसलमानों की संख्या कम है। यहां भाजपा ने लोकसभा चुनाव में तृणमूल को काफी पीछे छोड़ दिया था। उत्तर, दक्षिण और मध्य बंगाल में इनकी संख्या काफी है। मुस्लिम मतों की दृष्टि से ओवैसी के प्रवेश की अनदेखी नहीं की जा सकती। बिहार के मुस्लिम प्रभाव वाले सीमांचल में 20 सीटों पर चुनाव लड़कर अगर वो पांच सीट पर विजय पा सकते हैं तथा शेष सीटों पर अन्य दलों का समीकरण गड़बड़ा सकते हैं तो बंगाल में वे बिल्कुल कुछ नहीं कर पाएंगे, ऐसा मानना उचित नहीं। जबकि अब्बास सिद्दीकी ममता बनर्जी के साथ थे। मुस्लिम मतों को ममता के साथ लाने में उनकी भी भूमिका थी। अब वे ममता विरोधी हैं। ऐसे में विधानसभा चुनाव का माहौल उस समय से ज्यादा संवेदनशील है। लिहाजा तृणमूल का गणित गड़बड़ा सकता है।

वहीं भाजपा की रणनीति के कई हिस्से हैं। पार्टी ने हिंदुत्व और राष्ट्रवाद सहित राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को वहां पूरी ताकत के साथ झोंक दिया है। बंगाल में आज भी सबसे ज्यादा मतदाता किसान परिवार से ही हैं। इसमें एक मुट्ठी चावल और कृषक सुरक्षा अभियान का महत्व आसानी से समझ में आता है। इसके साथ वह बंगाली महापुरुषों को लगातार स्वाभाविक तरीके से महिमामंडित कर लोगों की भावनाओं को स्पर्श करने की रणनीति पर काम कर रही है। जब वहां राम मंदिर की बात होती है, भाजपा नेता लव जिहाद से लेकर भाजपा शासित राज्यों में गोहत्या पर प्रतिबंध संबंधी कानूनों की बात करते हैं, दूसरे राज्यों में पुराने शहरों का नाम बदले जाने की चर्चा करते हैं या पाकिस्तान में सर्जकिल स्ट्राइक से लेकर चीन के साथ सफल टकराव की बात करते हैं, तो लोगों की जबरदस्त तालियां मिलती हैं।

ममता की नीतियों से वहां गैर मुस्लिमों के बड़े वर्ग में असंतोष है। उन्हें हिंदुत्व और राष्ट्रवाद भा रहा है। भाजपा स्वामी विवेकानंद से लेकर महर्षि अरविंद, रविंद्र नाथ टैगोर, सुभाष चंद्र बोस आदि से जुड़ी तिथियों को जिस प्रभावी तरीके से प्रदेश स्तर पर मना रही है उसके असर से कोई इन्कार नहीं कर सकता। संयोग देखिए, सुभाष बाबू की 125वीं जयंती कल ही है और मोदी सरकार ने इसके लिए 85 सदस्यीय समिति बनाकर व्यापक पैमाने पर इसे मनाने का कार्यक्रम बनाया है।

यह भाजपा की रणनीतियों से बढ़े दबाव का असर ही है कि कृषक सुरक्षा अभियान आरंभ होते ही ममता ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा है कि वह किसान सम्मान निधि योजना लागू करने के हक में हैं। भाजपा के अभियान के कारण ममता बनर्जी को अपना रवैया बदलने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। वैसे ममता अभी भी एक मजबूत प्रतिद्वंद्वी हैं। उनके व्यवहार और नीतियों से पार्टी के अंदर और समर्थकों के बीच भारी असंतोष राजधानी कोलकाता से लेकर पूरे प्रदेश में प्रकट हो रहा है। इसका लाभ उठाने की स्थिति में भाजपा ही तो है।

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