✍ निमिषा सिंह
चिकित्सकों को मरीजों के पर्चे में सिर्फ जेनेरिक दवाएं ही लिखने की नसीहत देने वाली सरकार की हालिया अधिसूचना ने चिकित्सा पेशेवरों को एक बड़ी दुविधा में डाल दिया है। नेशनल मेडिकल काउंसिल के नए दिशा-निर्देशों के अनुसार सभी डॉक्टरों को पर्ची पर ब्रांडेड दवाइयों की जगह केवल जेनेरिक दवाइयां लिखनी होगी और ऐसा नहीं करने पर उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो सकती है या मुमकिन है कि उनका लाइसेंस एक निश्चित अवधि के लिए रद्द कर दिया जाए। एन एम सी ने सख्ती के साथ चिकित्सकों को ब्रांडेड दवाइयां लिखने से परहेज करने को कहा है। उन्हे अपने प्रिस्क्रिप्शन में केवल जेनेरिक दवाइयां को शामिल करना आवश्यक है। साथ ही मरीजों को दी जाने वाली पर्ची प्रिंटेड हो इस बात पर भी जोर दिया गया है।
सबसे पहले तो हमे जेनेरिक और ब्रांडेड या गैर जेनेरिक दवाओं के विषय में जानना होगा। उदाहरण के तौर पर दर्द और बुखार में काम आने वाले पैरासिटामोल सॉल्ट को कोई कंपनी इसी नाम से बेचे तो उसे जेनेरिक दवा कहेंगे। वहीं जब इसे किसी ब्रांड जैसे- क्रोसिन के नाम से बेचा जाता है तो यह उस कंपनी की ब्रांडेड दवा कहलाती है। तुलनात्मक रूप से ब्रांडेड दवा जेनेरिक से काफी महंगी होती है।जाहिर है भारत में लोगों की कमाई का एक बड़ा हिस्सा उनके स्वास्थ्य और बीमारी पर खर्च हो जाता है जिसमे सबसे ज्यादा खर्च दवाइयां पर होता है। भगवान के बाद मरीज अगर किसी पर यकीन करता है तो वह है डॉक्टर। पर्ची पर लिखी गई ब्रांडेड दवाइयां महंगी ही क्यों ना वह खरीदता जरूर है।
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि देश में लगभग सभी नामी दवा कम्पनियां ब्रांडेड के साथ-साथ कम कीमत वाली जेनेरिक दवाएं भी बनाती हैं लेकिन ज्यादा लाभ के चक्कर में डॉक्टर और कंपनियां लोगों को इस बारे में कुछ बताते नहीं हैं और जानकारी के अभाव हम महंगी दवाएं खरीदने को विवश हैं। एक और जहां सरकार कम कीमत में स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने की कोशिश में लगी है वहीं दूसरी तरफ इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ शरद कुमार अग्रवाल ने आपत्ति जताते हुए कहा है कि एनएमसी का फैसला बिना ट्रैक के ट्रेन चलाने जैसा है। यह स्वाभाविक रूप से मरीज के हित में नहीं होगा। उन्होंने सवाल किया कि अगर डॉक्टरों को ब्रांडेड दवाएं लिखने की अनुमति नहीं तो ऐसी दवाओं को लाइसेंस क्यों?
सवाल यह है कि जेनेरिक दवाइयों को लेकर डॉक्टर या इंडियन मेडिकल एसोसिएशन और सरकार के बीच तनाव क्यों? इसके लिए हमें जेनेरिक और ब्रांडेड दवाइयां के बीच के अंतर को समझना होगा। एक बड़ा अंतर तो यह है कि जेनेरिक दवाइयां ब्रांडेड दवाइयां की तुलना में काफी सस्ती होती है। मुंगेर सदर अस्पताल के परिसर में जन औषधि केंद्र के संचालक राकेश कुमार ने बताया कि हम पिछले 5 सालों से इस कोशिश में लगें हैं कि गरीब मरीजों तक सस्ती दवाएं उपलब्ध करा सके। हालांकि प्राइवेट हॉस्पिटल और डॉक्टरों की मनमानी की वजह से हमे खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।
बातचीत के क्रम में ही उन्होंने मुझे जेनेरिक और गैर जेनेरिक दवा के बीच के मूल्य के बीच का अंतर बताया। दर्द और बुखार में दी जाने वाली एंटीबॉयोटिक दवा एसिक्लोफेनाक (पैरासिटामॉल) की 10 गोली वाली स्ट्रिप की कीमत जन औषधि केंद्र में दस रुपये है जबकि ब्रांडेड की कीमत 45 रुपये है। एंटीबॉयोटिक के रूप में अमोक्सिसिल्लिन-625 की कीमत औषधि केंद्र में छह गोली की स्ट्रिप 51 रुपये में मिलती है जबकि ब्रांडेड की कीमत 160 रुपये है। शुगर में दी जाने वाली दवा ग्लिमेप्राइड एक एमजी की 10 गोली की कीमत औषधि केंद्र में चार रुपये है जबकि बाजार में इसकी कीमत 50 रुपये प्रति स्ट्रिप है। यही दवा दो एमजी में 10 गोली वाली स्ट्रिप की कीमत औषधि केंद्र में 5 रुपये है, जबकि बाजार में इसकी कीमत 55 रुपये हो जाती है।
गैस में दी जाने वाली दवा पैंटोप्राजोल की 10 गोली वाली स्ट्रिप की कीमत औषधि केंद्र में 22 रुपये है जबकि बाजार में इसकी कीमत 190 रुपये है। इसकी दूसरी दवा ओमीप्राजोल की कीमत औषधि केंद्र पर 10 रुपये है। जबकि बाजार में इसकी कीमत 70 रुपये हो जाती है।बीपी में दी जाने वाली दवा टेल्मीसार्टन-40 एमजी की 10 गोली वाली स्ट्रिप की कीमत औषधि केंद्र में 12 रुपये है जबकि बाजार में इसकी कीमत 60 रुपये है।
जेनेरिक दवाइयां पर सरकार का नियंत्रण होता है जबकि ब्रांडेड दवाइयां पर काफी हद तक कंपनियों का नियंत्रण होता है इसलिए वो दवा का मनमाना मूल्य निर्धारित करते है। जेनेरिक दवाइयां जन औषधि केंद्र और सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध है जबकि प्राइवेट हॉस्पिटल और मेडिकल स्टोर्स पर सिर्फ ब्रांडेड दवाएं ही बिकते है। चूंकि ब्रांडेड दवाओं की कंपनी अपने ब्रांड के प्रचार प्रसार में काफी पैसे खर्च करती है जिसकी भरपाई मरीजों की जेब काटकर की जाती है। हालांकि लोगों में जेनेरिक दवाइयां के असर को लेकर अभी भी दुविधा है।
यह सवाल अक्सर उठाया जाता है कि क्या जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता और प्रदर्शन ब्रांड दवाओं के बराबर है?जेनेरिक दवाओं के समर्थकों का दावा है कि वे ब्रांड या इनोवेटर दवाओं के समान ही प्रभावी हैं। भागलपुर के मिनी दी मेमोरियल हॉस्पिटल के चिकित्सक डॉ रौनक राज का कहना है कि "जेनेरिक दवाएं ब्रांडेड दवाओं की तरह ही असर करती है। फर्क इतना है कि ब्रांडेड दवाओं की मार्केटिंग ज्यादा होती है और चूंकि मरीज हम पर आंख मूंद कर भरोसा करते है तो हमारी पर्ची पर लिखी ब्रांडेड दवाइयां के असर के विषय में वो आश्वस्त रहते है। लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है। जेनरिक दवाएं भी ठीक उसी तरह अपना काम करती है जैसे ब्रांडेड दवाएं। ब्रांडेड दवा से जेनेरिक दवा पर स्विच करने में भी कोई नुकसान नहीं है।
जो साल्ट जेनेरिक दवाइयों में होते हैं वही साल्ट ब्रांडेड दवाइयों में भी। जितनी असरकारी जेनेरिक दवाइयां होती है उतनी ही असरकारी ब्रांडेड दवाइयां फिर सवाल यह उठता है कि दोनो की कीमतों से दोगुने से भी ज्यादा का फर्क क्यूं? क्यों प्राइवेट हॉस्पिटल्स में या मेडिकल स्टोर्स पर जेनेरिक की जगह ब्रांडेड दवाइयां बेची जा रही है? क्यूं डॉक्टर जेनेरिक की जगह ब्रांडेड दवाइयां अपनी पर्ची में लिखते है ? जेनेरिक दवाएं न बिकने का कारण कहीं न कहीं डॉक्टर भी हैं। मल्टी नेशनल फार्मा कंपनी में काम करने वाले एक मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव ने बताया कि उन्हें दवाएं बेचने का टारगेट मिलता है जिसके लिए वह सरकारी और प्राइवेट दोनों ही डॉक्टर्स के पास जाते हैं। अगर कोई कंपनी नई हो या नई दवा हो और उतनी असरकारक न हो तो ज्यादातर डॉक्टर तुरंत अपने मुनाफे की बात करते है। इसके लिए उन्हें 10 से लेकर 50 परसेंट तक कमीशन देना होता है। चूंकि कंपनियां मोटा मुनाफा कमाती हैं तो इसके लिए वे डॉक्टर्स को भी बड़ा हिस्सा देने को तैयार रहती हैं। डॉक्टर्स को महंगे गिफ्ट से, विदेशों की सैर और उनके घर पर होने वाली किसी भी पार्टी का सारा खर्च ये कंपनियां उठाने को तैयार रहती हैं।
जाहिर है दवाओं के लिहाज से डॉक्टरों का हर एक प्रिस्क्रिप्शन बिका होता है। एक ऊंची बोली लगती है पर्चे में दर्ज होने वाली दवाओं की फेहरिस्त की। यहां तक कि डॉक्टरों के मेडिकल स्टोर भी फिक्स होते हैं। पर्ची पर बाकायदा लिखा होता है कि उनकी दवाएं किन मेडिकल स्टोर्स पर मिल सकती है। चूंकि जेनेरिक दवाओं में इनका कुछ फायदा होता नहीं हैं। इसलिए इन्हे लिखने में डॉक्टर परहेज करते हैं। मजाल क्या कि कोई मरीज लिखी गई दवा की जगह उसी सॉल्ट की अन्य कोई दवा ले भी ले आए तो यह कहकर वापस करा दिया जाता हैं कि जो लिखी है वही लेकर आओ। भारत में एक लंबे अरसे से सस्ती दवाओं को उपलब्धता को लेकर मांग की की जाती रही है। जन स्वास्थ्य अभियान और ग्लोबल पीपुल्स हेल्थ मूवमेंट (पीएचएम) के संस्थापक सदस्य डॉ. अमित सेनगुप्ता इस सवाल को लगातार उठाते रहे हैं। उनका निधन 2018 में हुआ। 2015 में झाबुआ में विकास संवाद की ओर से आयोजित पत्रकार समागम में दवाओं की कीमत को लेकर आवाज उठाया गयी।
2012 से सस्ती दवाइयां की उपलब्धता को लेकर मुहिम हो या फिर स्वस्थ भारत के तीन आयाम जनऔषधि, पोषण और आयुष्मान के विषय को जन जन तक पहुंचाने के लिए 21000 किलोमीटर की देशव्यापी स्वास्थ्य जागरण यात्रा करने वाले स्वस्थ भारत अभियान के फाउंडर आशुतोष कुमार सिंह ने बताया कि ऐसा नही है कि की दवा कंपनियों पर सरकार का नियंत्रण नहीं है। दवाओं और फार्मूलों की कीमतों में संशोधन करने और देश में दवाओं की कीमतों और उपलब्धता को लागू करने के लिए राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण यानी एनपीपीए मौजूद है। दुखद है की यह प्राधिकरण अपना काम सही तरीके से नहीं कर रही। एन एमसी की नई गाइडलाइन स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रभावकारी कदम साबित होगी। हमारी मेहनत रंग ला ला रही है। भारत में पहले से ही जनऔषधि जैसी और भी कई योजनाएं हैं जो लाखों गरीबों को सरकारी अस्पतालों से मुफ्त जेनेरिक दवाएं उपलब्ध कराती हैं।
प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र बिहार के इंचार्ज कुमार पाठक जी से जब इस सिलसिले में मेरी बात हुई तो उन्होंने बताया कि" निश्चित तौर पर सरकार का यह कदम सराहनीय है। पिछले कुछ सालों से विभिन्न जन औषधि केंद्रों पर बड़ी मात्रा में जेनेरिक दवाइयों की खपत और मांग यह दर्शाती है कि लोगों में इन दवाओं के प्रति विश्वसनीयता बढ़ी है। हम जन औषधि केंद्रों पर तकरीबन 1600 तरह की दवाएं उपलब्ध करा रहे है। जेनेरिक की कम लागत ब्रांडेड दवाओं का एक विकल्प है और इसलिए जेनेरिक हावी है जो खुदरा बाजार का 70 से 80% हिस्सा बनाता है। जैसे-जैसे भारत की जनसंख्या बढ़ रही है विशेषकर वृद्ध जनसंख्या के कारण जेनेरिक दवाओं की मांग उनकी सामर्थ्य और प्रभावशीलता के कारण काफी बढ़ गई है जो ब्रांडेड दवाओं के समान ही है।"
हालाकि अभी भी जेनेरिक दवाओं को लेकर लोगों के मन में तमाम तरह की भ्रांतियां देखी जाती हैं। जेनेरिक दवाएं सस्ती होने के कारण उसके गुणवत्ता पर भी सवाल खड़े किए जाते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि लोगों में जेनेरिक दवाओं से जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने की आवश्यकता है। स्वाभाविक है जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता और उपयोग के साथ हमारा इन दवाओं के साथ अनुभव बढ़ेगा उतना ही हमारा विश्वास कायम होगा।
उम्मीद है की जैसे-जैसे अधिक से अधिक पेटेंट समाप्त होते जायेंगे दवा बाजार के जेनेरिक संस्करणों की बिक्री में वृद्धि की संभावनाएं और बढ़ेगी। डॉक्टर स्वेच्छा से और विश्वास के साथ जेनेरिक दवाएं प्रिस्क्राइब करें इसके लिए सरकार को भी सभी जेनेरिक दवाओं की एक समान गुणवत्ता सुनिश्चित करनी पड़ेगी और इस आदेश को अमली जामा पहनाने के लिए वृहत स्तर पर काम करना होगा।
Post a Comment