सम्पादक की कलम से : लोकतंत्र के नये मंदिर को प्रणाम!


विपक्ष एक बार फिर चूक गया, कांग्रेस सहित 19 पार्टियों ने लोकतंत्र के भव्‍य मंदिर के उद्घाटन समारोह का बॉयकॉट किया. एक साझा बयान में कहा गया कि चूंकि राष्ट्रपति देश की संवैधानिक प्रमुख हैं, संसद के अविभाज्य अंग है, इसलिए संसद के नय़े भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति के हाथों होना चाहिए. बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए ने एक साझा बयान जारी किया जिसमें कहा गया कि इन पार्टियों का ये फैसला अपमानजनक है. यह हमारे महान राष्ट्र के संवैधानिक मूल्यों और लोकतांत्रिक परिपाटी का अपमान है.

बीजेपी ने कहा, कांग्रेस के नेताओं ने पहले पार्लियामेंट एनेक्सी और लाइब्रेरी का शिलान्यास किया, तब राष्ट्रपति को नहीं बुलाया. कई विधानसभा भवनों का उद्घाटन किया, तब राज्यपाल को नहीं बुलाया. इसलिए राष्ट्रपति तो बहाना है, मोदी ही निशाना है. कांग्रेस और दूसरे विरोधी दलों को मुख्य रूप से विरोध के पीछे दो तर्क हैं. पहला, नये संसद भवन के उद्घाटन के लिए राष्ट्रपति को न बुलाना राष्ट्रपति के पद का अपमान है. दूसरा, उद्घाटन समारोह में राष्ट्रपति को न बुलाना आदिवासियों का अपमान है. इन दो सवालों का जबाव ये है कि जब कांग्रेस की सरकारों में इस तरह के कार्यकमों में राष्ट्रपति को नहीं बुलाया गया तो क्या वो राष्ट्रपति पद का अपमान नहीं था? 
जब राज्यों में विधानसभा की बिल्डिंग का उद्घाटन मुख्यमंत्री ने किया तो क्या ये राज्यपाल का अपमान नहीं था? बिहार विधानसभा के नये भवन का उद्घाटन खुद नीतीश कुमार ने किया, असम में तरूण गोगोई ने किया, झारखंड में हेमंत सोरेन ने किया, तेलंगाना में के चन्द्रशेखर राव ने किया, आन्ध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी ने किया, कहीं भी राज्यपाल को नहीं बुलाया गया, तो क्या ये संवैधानिक पद का अपमान था?

मुख्यमंत्रियों ने विधानसभा का उद्धाटन करके कोई गलत काम नहीं किया, किसी का अपमान नहीं किया. सपा नेता रामगोपल यादव ने दो दिन पहले बिल्कुल सही बात कही थी- लोकतंत्र में विधायिका का प्रमुख प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ही होता है, इसलिए इस मुद्दे पर ये विवाद फिजूल का है. जहां तक राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू को न बुलाकर आदिवासियों के अपमान की बात है तो कांग्रेस और दूसरे विरोधी दलों से ये भी पूछा जाएगा कि जब राष्ट्रपति के चुनाव में द्रोपदी मुर्मू के खिलाफ यशवन्त सिन्हा को मैदान में उतारा था, तो क्या वो आदिवासियों का सम्मान था? 
उस वक्त कांग्रेस क्या आदिवासियों के खिलाफ थी? जब मौका बड़ा हो, बात देश की हो, तो छोटे राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर सोचना चाहिए. सबसे जघन्‍य टिप्‍पणी लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी की है. पार्टी ने ट्विट किया है, जिसमें एक तरफ ताबूत है और दूसरी तरफ नया संसद भवन है, आकार का मिलान किया गया है और संकेतों में इस भवन को कब्रिस्‍तान कहा गया है, तो लालू प्रसाद जैसे भ्रष्‍ट लोगों के लिए यह कब्रिस्‍तान ही है. उनके जैसे तमाम भ्रष्‍ट लोग वाया तिहाड़ राजनीतिक कब्रिस्‍तान में ही जायेंगे, क्‍योंकि करप्‍शन के लिए 2 साल से ज्‍यादा की सजा होते ही चुनाव लड़ने पर पाबंदी लग जाती है.

संसद ने नए भवन के उद्घाटन को मुद्दा बनाने की दो बड़ी वजहें हैं, पहली, मोदी विरोध, जो जो पार्टियां मोदी से परेशान हैं, अब 2024 तक हर छोटी बड़ी बात पर, मोदी विरोध के नाम पर, हम साथ साथ हैं, का ऐलान करती रहेंगी, दूसरी बात, इन पार्टियों को राष्ट्रपति से कोई प्रेम नहीं है, वो भी जानते हैं कि एक भवन का उद्घाटन कोई संविधान का सवाल नहीं है, वो भी जानते हैं कि नरेंद्र मोदी ने ही एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनाया है,  विरोधी दल राष्ट्रपति का नाम इसलिए ले  रहे हैं कि आदिवासी समाज की भावनाओं को थोड़ा बहुत भड़काया जा सके, अगर विपक्ष के नेताओं के बयानों को ध्यान से सुनेंगे, तो पता चलेगा वो ये कह रहे हैं कि मोदी ने वोटों के लिए एक आदिवासी को राष्ट्रपति बनाया, और अब हम वोटों के लिए संसद के उद्घाटन को आदिवासी महिला राष्ट्रपति का अपमान बता रहे हैं, कुल मिलाकर ये सियासत की लड़ाई है, 2024 के चुनाव से पहले मोदी को तरह तरह से घेरने की कोशिश का हिस्सा है, अभी साल भर बाक़ी है, ऐसे स्वर कई बार सुनाई देंगे, लेकिन मुझे लगता है कि सिर्फ़ मोदी विरोध के लिए, सिर्फ़ आदिवासी वोट के लिए पार्लियामेंट के नए भवन के उद्घाटन को बायकॉट करना लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं था, ये देश के लिए ऐतिहासिक मौक़ा था, अच्छा होता कि इस दिन सारे राजनीतिक दल संकल्प लेते कि नई पार्लियामेंट में, नई परंपराएं क़ायम होंगी, यहां सिर्फ़ काम होगा, समय का सदुपयोग होगा, और अब जनता के पैसे की बर्बादी नहीं होगी, शायद, एक साल बाद चुनाव न होता, तो ये संभव था, अब ऐसे संकल्प की उम्मीद कम है, नए संसद भवन का उद्घाटन महज एक रस्म अदायगी नहीं था, जिसे किसी ने भी निभा दिया. यह भावी पीढ़ी को सौंपी गयी एक लोकतांत्रिक विरासत है.यह उन चुनिंदा वास्तु शिल्पों में से है, जिसे हमने लोकतांत्रिक व्यवस्था को अंगीकार करने के बाद बनाया है. 

थोड़ा पीछे जायें, 15 अगस्त 1947 की रात देश में सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक स्वरूप नेहरू ने ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि लार्ड माउंटबैटन से सेंगोल ग्रहण किया था. दूसरे, धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र के कट्टर समर्थक नेहरू ने सी. राजगोपालाचारी के आग्रह पर ही तमिलनाडु के ऐतिहासिक गौरव काल, चोल साम्राज्य के समय के सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक (जो राज और धर्मदंड जैसा था) को सार्वजनिक रूप से ग्रहण करना स्वीकार किया. चोल काल वह समय है, जब तमिलनाडु में शैव सम्प्रदाय का नए सिरे से उत्थान हुआ. यानी यह उस विचार का स्वीकार भी था, जिससे नेहरू स्वयं बहुत इत्तफाक नहीं रखते थे. फिर भी नेहरू ने इसे इसलिए माना कि राजगोपालाचारी तथा कुछ और लोगों की ऐसी इच्छा थी कि 'सर्वधर्म समभाव' वाले भारत में भी हिंदू परंपराओं की महत्ता बनी रहे.

जहां तक तकनीकी तौर पर संसद भवन के उद्घाटन की बात है तो प्रधानमंत्री को उतना ही अधिकार है. वैसे भी जब मोदीजी हर वंदे मातरम् ट्रेन को हरी झंडी दिखा रहे हैं तो ये तो संसद भवन का मामला है, उस संसद भवन का, जिसके वो नेता हैं और करोड़ों हिंदुओं के आदर्श हैं. लिहाजा यह उद्घाटन इस मायने में भी ऐतिहासिक है क्योंकि यह भव्य भवन एक हिंदू राजपुरुष द्वारा देखे गए सपने, एक हिंदू वास्तुशिल्पकार द्वारा डिजाइनीकृत, हिंदुत्व विचारधारा के पुरोधा की जयंती पर उद्घाटित, हजारों हिंदू श्रमिकों (जिनमें कुछ दूसरे धर्मों के भी हो सकते हैं) के हाथों निर्मित व भारत के विश्व गुरू बनने के मंगलाचरण का महाघोष करता स्थापत्य है. ऐसे स्थापत्य के लोकार्पण के लिए पीएम मोदी से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था.

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