बहरहाल सच्चाई से अधिक देर तक मुंह नहीं मोड़ा जा सकता, यह बात एक दिन बाद ही कलकत्ता हाई कोर्ट में प्रमाणित हो गई। हिंसा से इन्कार पर हाई कोर्ट की मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच जजों की पीठ से ममता सरकार को सिर्फ कड़ी फटकार ही नहीं मिली, बल्कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) को समिति गठित कर जांच करने का भी निर्देश दे दिया गया। इससे साफ हो गया कि सूबे में चुनाव बाद हिंसा हुई है।
ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि आखिर मुख्यमंत्री ने पहले सूबे में सियासी हिंसा होने से क्यों इन्कार किया? इसके बाद जब एनएचआरसी को समिति गठित कर जांच करने को कहा गया तो इसका विरोध क्यों किया जा रहा है? अगर राज्य में हिंसा नहीं हुई है तो फिर कोर्ट के निर्देश पर पुनíवचार की मांग क्यों? इन सब बातों का सीधा अर्थ निकल रहा है कि हिंसा हुई है। क्योंकि पिछले सप्ताह ही भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने कहा था कि ‘चुनाव बाद हिंसा में अब तक उनके 42 पार्टी कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है और हजारों लोग भय से घर छोड़ने को मजबूर हैं। ये सभी घटनाएं स्पष्ट रूप से हिंसा के आरोपों को ही प्रमाणित कर रही हैं।’
इसके अलावा 18 जून को हाई कोर्ट की वृहतर पीठ का निर्देश आने से चार दिन पहले राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर कहा था कि ‘राज्य सरकार चुनाव बाद की हिंसा से लोगों को हुई पीड़ा को लेकर निष्क्रिय और उदासीन रही है।’ इसके बाद हाई कोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल, न्यायमूíत आइपी मुखर्जी, हरीश टंडन, सोमेन सेन और सुब्रत तालुकदार की पांच सदस्यीय पीठ ने साफ कहा कि ‘चुनाव के बाद हुई हिंसा के कारण राज्य के तमाम लोगों का जीवन और संपत्ति खतरे में होने का आरोप है। ऐसे हालात में राज्य को अपनी पसंद के अनुसार काम करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। राज्य सरकार को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि कानून व्यवस्था को बनाए रखना और लोगों में विश्वास पैदा करना उसका कर्तव्य है। लोगों की शिकायतों पर तत्काल कार्रवाई की जानी चाहिए। हमले की आशंका से ही लोग अपने घरों को लौटने से डर रहे हैं। पहले तो राज्य सरकार इन आरोपों को मान ही नहीं रही थी, पर हमारे पास कई घटनाओं की जानकारी और सुबूत हैं। इस तरह के आरोपों को लेकर सरकार चुप नहीं रह सकती।’ क्या हाई कोर्ट की इस टिप्पणी को भी नकारा जा सकता है?
हिंसा को लेकर सिर्फ हाई कोर्ट ही नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट में भी कई मामले लंबित हैं। भाजपा इस मुद्दे को लेकर ममता सरकार पर लगातार हमलावर है। इस आतंक से सीधे तौर पर तृणमूल कार्यकर्ताओं के जुड़े होने और हिंसा करने वालों को राज्य सरकार तथा पुलिस मशीनरी का संरक्षण प्राप्त होने के भी आरोप यूं ही नहीं लग रहे हैं। इसमें कुछ तो सत्यता है, जिसकी वजह से हाई कोर्ट को जांच का निर्देश देना पड़ा है। क्या राज्य के प्रशासनिक प्रमुख के इन्कार करने से हिंसा करने वालों का मनोबल नहीं बढ़ेगा? इस पर भी विचार करने की जरूरत है। इससे पहले जब राज्यपाल धनखड़ ने हिंसाग्रस्त इलाकों का दौरा किया था तो ममता सरकार ने इसका भी विरोध किया था। वे हिंसाग्रस्त इलाकों से पलायन करने वाले लोगों से मिलने असम गए तो उसका भी तृणमूल ने विरोध किया। इसके बाद भी हिंसा को नकारा जाना और कोर्ट में विरोध करना क्या दर्शाता है? हाई कोर्ट की फटकार से ममता सरकार के रवैये पर सवाल उठना लाजिमी है।
अभी तीन दिन पहले बीरभूम जिले में 300 से अधिक भाजपा समर्थकों पर गंगा जल छिड़क कर उन्हें तृणमूल में शामिल कराया गया था। इसे क्या कहा जाएगा? यह सत्य है कि बंगाल जैसी चुनावी हिंसा देश के किसी भी राज्य में नहीं होती। ऐसा नहीं है कि तृणमूल के शासन में यह सब हो रहा है। इससे पहले कांग्रेस से लेकर वामपंथी शासकाल में भी हिंसा और सियासी हत्याओं की लंबी सूची है। वास्तव में सूबे में सत्ता तो बदलती है, लेकिन हिंसा नहीं थमती। राज्य में स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह हिंसा रुकनी चाहिए।
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