ज्ञान, कर्म और भक्ति हैं ईश्वर प्राप्ति के असली मार्ग


जीवन फूलों की सेज नहीं है. जीवन सुख दुख का संगम है और इस संसार के प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख का आना जाना लगा रहता है. वास्तव में, यह प्रकृति चक्र है. धूप के बाद छांव और छांव के बाद धूप का आना तय है. जब किसी व्यक्ति के सामने दुख आता है, परेशानियां आती हैं, कष्ट आते हैं तो वह हताश और निराश होने लगता है और इसके लिए ईश्वर को, स्वयं को कोसता रहता है. लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए. हमें परेशानियों में भी धैर्य, संयम नहीं खोना है और सकारात्मक सोच, सकारात्मक ऊर्जा के साथ काम करना है. संघर्ष ही तो असली जीवन है. ईश्वर को, स्वयं को कोसने से कुछ होने वाला नहीं है. सुख भी हमें झेलने हैं तो दुख भी हमें ही झेलने हैं. जीवन को तो कहा ही गया है कि जीवन तो सुख दुख का संगम है. एक आता है और दूसरा जाता है. दूसरा आता है और पहला चला जाता है. दुःख में हमें यह चाहिए कि हम प्रार्थना करें. कहते हैं कि जब हम ईश्वर से सच्चे मन से, सच्चे दिल से प्रार्थना करते हैं तो वह परम पिता परमेश्वर हमारी प्रार्थनाएं अवश्य ही सुनता है.

ईश्वर कृपालु है, दयालु है लेकिन जब हम दुखी होते हैं या यूं कहें कि कष्ट में होते हैं तो हम ईश्वर को याद करते हैं और सुख में ईश्वर को भूल जाते हैं। कहा भी गया है - 'दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय. जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय.' बहरहाल कहना चाहूंगा कि हमें ईश्वर को सुख और दुख दोनों में हमेशा याद करते रहना चाहिए. हमारा मन, हमारी आत्मा पवित्र होनी चाहिए और हमें अहंकार, द्वेष और ईर्ष्या की भावनाओं से सदैव दूर रहना चाहिए. एक पवित्र मन, पवित्र आत्मा ही ईश्वर से साक्षात्कार कर सकती है. जब हमारे हृदय में कोई भी द्वेष भावना, कोई अहंकार की भावना नहीं होती है तो हमारा हृदय पवित्र होता है और पवित्र हृदय, पवित्र आत्मा से उत्पन्न हुए भाव ही तो असली प्रार्थना है. आज के आदमी की यह बहुत बड़ी कमी है कि वह विषय वासनाओं में फंसा पड़ा है. मनुष्य भौतिकवादी हो गया है और उसे केवल पदार्थ से प्यार है. पदार्थवादी संसार मनुष्य को दुखों की ओर अग्रसर करता है.

मनुष्य के लालच और स्वार्थ की कोई सीमा नहीं है और वह ज्यादा से ज्यादा पाने के चक्कर में लगा रहता है. वह धन की इच्छा रखता है, अमीर होने की इच्छा रखता है, मनुष्य पदार्थ के वशीभूत है. विषय वासनाओं के प्रति घोर आसक्ति उसे ईश्वर से दूर कर रही है. हमें चाहिए कि हम अपने अहंकार को उतार फेंके. अहंकार की भावना मनुष्य को कहीं का भी नहीं छोड़ती. अहंकारी व्यक्ति का सर्वनाश तय है. असत्य बोलना, छल कपट की भावना, वैर विरोध भाव, लालच स्वार्थ ही तो ईश्वर से हमें दूर ले जाते हैं. हमें अपने स्वभाव को सदैव विनम्र रखना चाहिए या रखने का प्रयास करना चाहिए. जो विनम्र होता है वह जीवन में हमेशा आगे बढ़ता है. विनम्रता बहुत बड़ा गुण है. विनम्रता का अर्थ है नम्र स्वभाव. याद रखिए विनम्र व्यवहार वाला व्यक्ति संसार में ऊंचाई पर पहुंच ही जाता है. जितने भी महान व्यक्तित्व इस संसार में हुए हैं उनके जीवन चरित्र में, उनको प्रभावशाली बनाने में, विनम्रता ने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. विनम्रता मानव का प्रथम गुण है. यह हमें उदार होना सिखाती है. विनम्रता पत्थर को भी मोम कर देती है, नम्रता सारे सद्गुणों का दृढ़ स्तंभ होती है, जो हमारे व्यक्तित्व का परिचय देती है.

विनम्र स्वभाव वाले व्यक्ति को सफलता, समृद्धि, सभी आसानी से जीवन में प्राप्त हो जाती है. विनम्र व्यक्ति समाज में हर कहीं, हर जगह सदैव सम्मान ही पाता है. वास्तव में, विनम्रता व्यक्ति का सबसे बड़ा गुण कहा गया है. विनम्र व्यक्ति एक सामान्य व्यक्ति की तुलना में जीवन में कहीं अधिक सफल होते हैं. इसलिए हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम विनम्रता को कभी भी नहीं त्यागें. विनम्र व्यक्ति के सामने क्रोधी अपना क्रोध भूल जाता है, अपराधी अपना अपराध भूल जाता है. कहना ग़लत नहीं होगा कि विनम्रता ही व्यक्ति को महान बनाती है. अब बात करते हैं कि आखिर विनम्रता आती कहां से है तो इसका सीधा सा उत्तर है कि विनम्रता ज्ञान और संस्कार से आती है. यह ऐसा गुण है जो आसानी से नहीं प्राप्त होता है. इसके लिए व्यक्ति को संयम, अनुशासन और सत्य के मार्ग पर चलना पड़ता है और ईश्वर को पाने का उपाय ही है सत्य की राह पर चलना. नम्रता वस्तुतः वह भावना या दृष्टिकोण है, जहाँ आप स्वयं को विशेष महत्त्व न देकर अभिमान रहित, निस्स्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई के विषय में तत्पर रहते हैं. 

हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि विनम्रता के लिए अत्यधिक आत्मज्ञान, आत्मनियंत्रण और आत्मसम्मान की आवश्यकता होती है. व्यक्ति को विनम्र होने के लिए अहंकार को छोड़ना होता है क्योंकि जो व्यक्ति अहंकारी होता है वह कभी भी विनम्रता को नहीं अपना सकता है. विनम्रता से प्रेम की भावनाओं का विकास होता है और ईश्वर को प्राप्त करने का सबसे उत्तम और सरल उपाय प्रेम ही तो है. याद रखिए कि प्रेम भक्ति का प्राण कहा जाता है. प्रेम के बिना इंसान चाहे कितना ही जप, तप, दान कर ले, वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता है. दुनिया का कोई भी साधन प्रेम के बिना जीव को ईश्वर से साक्षात् नहीं करा सकता है. तुलसीदासजी कहते हैं- 'मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा. पंचम भजन सो बेद प्रकासा.' वास्तव में, सुख दुःख को प्रसन्नचित्त से हमें भगवान का विधान समझना चाहिए और परिस्थितियों को आने जाने वाली समझकर बीतने देना चाहिए. घबराने या आकर्षित होने की जरूरत नहीं है. ऐसा नहीं होना चाहिए कि कुछ अच्छा हो गया तो खुश हो जायें कि 'ईश्वर की बड़ी कृपा है' और कुछ बुरा हो गया तो हम यह कहें कि 'ईश्वर ने ऐसा नहीं किया, वैसा नहीं किया.' गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ईश्वर प्राप्ति के तीन मार्ग-ज्ञान, कर्म तथा भक्ति मार्ग बताए हैं. अंत में यही कहूंगा कि जो व्यक्ति ईश्वर को सच्चे मन से स्वयं में धारण करता है और नित्य उनका स्मरण करता है ईश्वर उसकी मदद ना करें ऐसा संभव नहीं है।

(आर्टिकल का उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है.)

- सुनील कुमार महला

फ्रीलांस राइटर, कालमिस्ट व युवा साहित्यकार (उत्तराखंड)

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