बाबा रामदेव-आईएमए विवाद के पीछे कोई लॉबी तो नहीं !


योग गुरू बाबा रामदेव ने जब से आधुनिक चिकित्सा पद्धति एलोपैथ की आलोचना की है, तबसे देश में बवाल मचा हुआ है, उनकी आलोचना की जा रही है, कोरोना के खिलाफ जंग में समर्पित डाक्टरों को हतोत्साहित करने के आरोप लग रहे हैं, अभियान को कमजोर करने की साजिश बतायी जा रही है। डाक्टरों की देश की सबसे बड़ी संस्था उनके खिलाफ न केवल आक्रामक हो गयी है, अपितु उनके खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा चलाने की मांग करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र भी लिखा है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने मोदी को पत्र लिखकर मांग की है कि कोविड-19 के उपचार के लिए सरकार के प्रोटोकॉल को चुनौती देने तथा टीकाकरण पर दुष्प्रचार वाला अभियान चलाने के लिए रामदेव पर राजद्रोह का मामला दर्ज हो।

आईएमए ने कथित अपमानजनक बयान के लिए रामदेव को मानहानि का नोटिस भी भेजा है। कई जगहों पर उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज हुए हैं। संघ ने उनसे 15 दिन के अंदर माफी मांगने को कहा। ऐसा नहीं होने पर वह उनसे 1,000 करोड़ रुपये की क्षतिपूर्ति राशि मांगेगा। आईएमए ने कहा कि यह भलीभांति प्रमाणित है कि टीकाकरण से हम गंभीर संक्रमण के विनाशकारी प्रभावों से जनता और देश को बचाते हैं। इस मौके पर हम बड़े दुख के साथ आपके संज्ञान में लाना चाहते हैं कि सोशल मीडिया पर प्रसारित हो रहे एक वीडियो में दावा किया जा रहा है कि टीके की दोनों खुराक लेने के बाद भी 10,000 डॉक्टरों की मौत हो गयी और एलोपैथिक दवाएं लेने के कारण लाखों लोगों की मौत हो गयी, जैसा कि पतंजलि प्रोडक्ट्स के मालिक रामदेव ने कहा है।

आईएमए ने कहा कि कोरोना वायरस की पहली लहर में 753 डॉक्टरों की संक्रमण से मौत हो गयी थी और दूसरी लहर में 513 चिकित्सकों ने जान गंवाई है। अब कपटपूर्ण तरीके से टीके की दोनों खुराकें लेने के बाद भी 10,000 लोगों के मरने की बात करना जनता तक टीकाकरण को पहुंचाने के प्रयासों को बाधित करने का जान-बूझकर किया जा रहा प्रयास है और इसे तत्काल रोकना होगा। आईएमए चिकित्सा की सभी प्रणालियों, विशेष रूप से आयुर्वेदिक दवाओं की भारतीय प्रणाली का सम्मान करता है।

सारा मामला बीते दिनों सोशल मीडिया पर साझा किए जा रहे एक वीडियो को लेकर हुआ। इसका हवाला देते हुए आईएमए ने कहा था कि रामदेव कह रहे हैं कि एलोपैथी एक स्टुपिड और दिवालिया साइंस है। एलोपैथी की दवाएं लेने के बाद लाखों लोगों की मौत हो गयी। भारत के औषधि महानियंत्रक द्वारा कोविड-19 के इलाज के लिए अनुशंसित रेमडेसिविर, फैबीफ्लू तथा ऐसी अन्य दवाएं मरीजों का इलाज करने में असफल रही हैं। आईएमए व डॉक्टरों की अन्य संस्थाओं की मांग के बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने रामदेव को एक पत्र लिखकर उनसे इस ‘अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण’ बयान को वापस लेने को कहा था। इसके बाद रामदेव ने एलोपैथिक दवाओं पर अपने बयान को रविवार को वापस ले लिया था। बाबा रामदेव ने माफी मांगते हुए कहा कि मैं अपने बयान से किसी को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता था। अगर कोई व्यक्ति किसी भी चिकित्सा पद्धति की आलोचना करता है तो उसे एक आलोचना भर समझना चाहिए। कई बार एलोपैथी के डॉक्टरों ने कहा है कि आयुर्वेद या फिर भारतीय चिकित्सा प्रणाली झूठा विज्ञान है। हालांकि, एक दिन बाद बाबा रामदेव ने अपने ट्विटर हैंडल पर एक खुले पत्र में आईएमए से 25 सवाल पूछे। इसमें उन्होंने पूछा कि क्या एलोपैथी से उच्च रक्तचाप और टाइप-1 और 2 के मधुमेह के रोगियों को स्थायी उपचार मिल सका है, जिसे लेकर भी उनकी आलोचना हुई है। इस बीच, सोशल मीडिया पर अरेस्ट रामदेव ट्रेंड होने के संबंध में रामदेव ने कहा, वे सिर्फ शोर मचा रहे हैं, वे लगातार ‘ठग रामदेव’, ‘महाठग रामदेव’, ‘गिरफ्तार रामदेव’ आदि ट्रेंड करा रहे हैं। इस कथित वीडियो में रामदेव कह रहे हैं, ‘अरेस्ट तो खैर उनका बाप भी नहीं कर सकता स्वामी रामदेव को।

 सवाल है कि आईएए का यह आक्रामक रूख क्यों है। कहीं यह आयुर्वेद के खिलाफ साजिश तो नहीं है। भारत की ही नहीं, विश्व की प्राचीनतम और सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति है आयुर्वेद। यह पद्धति महर्षि चरक, सुश्रुत, धन्वंतरि, अगस्त्य, अत्रि, च्यवन जैसे महामुनियों का विश्व के जनमानस के कल्याण के लिए एक अद्भुत वरदान है। एलोपैथ 200 साल पुरानी चिकित्सा प्रणाली है जबकि आयुर्वेद को 3000 से 50000 वर्ष प्राचीन माना जाता है। कुछ एलोपैथ समर्थक या चिकित्सक इसे विज्ञान ही नहीं मानते तो यह दोष उनका नहीं, हमारी शिक्षा पद्धति, पाश्चात्य की चकाचौंध में भ्रमित हमारी मानसिकता, हम पर थोपा गया यह ज्ञान कि हर विदेशी चीज सर्वश्रेष्ठ होती है, का है। आयुर्वेद का अर्थ ही होता है जीवन का विज्ञान। आयुर्वेद के प्रति आज यदि कोई भ्रांति है, अनादर का भाव है तो यह केवल हमारी अज्ञानता ही नहीं, इसके प्रति हमारा और हमारी सरकारों का उपेक्षा भाव है, इसे एलोपैथ की तुलना में कमतर समझने की हमारी ओछी मानसिकता है, इसके अनुसंधान और विकास पर समुचित ध्यान न दिया जाना, आवश्यक धनराशि की अनुपलब्धता आदि है। विवाद के और कई कारण हो सकते हैं। आयुर्वेद, यूनानी, प्राकृतिक चिकित्सा और होमियोपैथ (जिन्हें एलोपैथ वाले कोई पद्धति ही नहीं मानते) आधुनिक चिकित्सा पद्धति में विकसित शल्य तकनीक को स्वीकार करते हैं, पर एलोपैथ इस मामले में पूरी तरह असहिष्णु है, असंवेदनशील है। वह अन्य चिकित्सा पद्धतियों की श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करती। यह बात और है कि जर्मनी, अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, कोरिया आदि कई देशों में आयुर्वेद, उसके ग्रंथों पर लगातार शोध हो रहे हैं। यदि आयुर्वेद के नुस्खे कारगर नहीं होते तो बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों, प्रसाधन उत्पादक मल्टीनेशनल्स के उत्पादों पर हर्बल प्रोडक्ट नहीं लिखे होते, उनके उत्पादों के उपादानों में जड़ी-बुटियों के नाम अंकित नहीं होते। भारत में ही नहीं, विदेशों में भी कई कंपनियां हर्बल उत्पाद बना रही हैं और यह लिखने में संकोच नहीं कर रही हैं कि यह हर्बल उत्पाद है, कोई साईड एफेक्ट नहीं होता। पेट, हड्डी, नींद और रक्तचाप के रोगों में बड़े आधुनिक अस्पतालों के डॉक्टरों की दवाएं अंग्रेजी नाम में आयुर्वेदिक दवाएं होती हैं।

क्या कोई लॉबी सक्रिय है : यह युग बाजारबाद का है और यह वह वाद है जिसमें उत्पाद चुंबक और उपभोक्ता लोहा है। उत्पाद जितना शक्तिशाली होगा, मार्केटिंग कला में माहिर होगा, लॉबी मजबूत होगी, उत्पाद उतना ही कारगर होगा। माल गुणवत्ता पर नहीं, पैकेजिंग पर बिकता है। आखिर क्यों एलोपैथी से भी सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए। एलोपैथी ने जो लूट मचा रखी है, क्या उसे सवालों के घेरे में नहीं आना चाहिए। चिकित्सा के नाम पर अनावश्यक टेस्ट, लाखों के बिल? लूट की छूट क्यों? वैसे, पारंपरिक बनाम एलोपैथी का विवाद कोरोना की पहली लहर के दौरान उसी पश्चिम में भी हुआ था जिसे हम श्रेष्ठ सभ्यता मानते हैं, जिसकी नकल करने में हमें गौरवबोध होता है। हमारे पास सूचनाएं सही रूप में नहीं आयीं। आयुर्वेद बनाम आधुनिक चिकित्सा पद्धति का यह विवाद असामयिक तो है लेकिन इसे कुछ निहित स्वार्थों के चलते हवा दी जा रही है। आयुर्वेद या पारंपरिक चिकित्सा पद्धति का मुरीद तो पश्चिमी सभ्यता का बहुत बड़ा तबका है। कोरोना की पहली लहर के दौरान ब्रिटेन के पड़ोसी देश आयरलैंड में भी पारंपरिक बनाम आधुनिक चिकित्सा पद्धति पर विवाद हुआ था। आयरलैंड में फूलों और जड़ी-बूटियों से इलाज की परंपरा है। कोरोना के इलाज में जब डॉक्टरों ने इस पारंपरिक पद्धति का सहारा लिया तो वहां भी इसे अवैज्ञानिक और खतरनाक बताकर खारिज किया गया। यह बात और है कि इलाज के कथित प्रोटोकाल को आयरलैंड ने खारिज कर दिया और वह अपनी पारंपरिक पद्धति से भी इलाज करता रहा। नार्वे ने भी ऐसा किया और एलोपैथी के वर्चस्व वाले कथित प्रोटोकॉल तक को मानने से इनकार कर दिया। कुछ अफ्रीकी देशों में तो फार्मा लॉबी के दबाव में पारंपरिक पद्धति से इलाज करने वालों को जेल तक में डाला गया लेकिन इसका इतना भारी विरोध हुआ कि फार्मा लॉबी को हथियार डालने पड़े। यहां यह उल्लेख करना असमीचीन नहीं होगा कि बड़ी लॉबी कई बार फर्जी शोध करा लेती हैं। उदाहरण के लिए 2016 में ही न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक शीतल पेय बनाने वाली एक कंपनी ने लाखों डॉलर का भुगतान शोधकर्ताओं को प्रायोजित करने में खर्च किया था, ताकि मोटापे और अवसाद जैसे रोगों के शीतल पेय पीने की आदत से जुड़े रिश्ते का खंडन किया जा सके। कैंडी निर्माताओं ने एक ऐसे अध्ययन को प्रायोजित किया था जो साबित करे कि जो बच्चे कैंडी नहीं खाते उनके मुकाबले कैंडी खाने वाले बच्चों में मोटापा कम होता है।

संप्रति कोई पैथी स्वयं संपूर्ण नहीं है। कोरोना की पहली लहर के दौरान मलेरिया के इलाज में इस्तेमाल होने वाली हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन के इस्तेमाल की 23 मई 2020 को स्वास्थ्य मंत्रालय ने अनुमति दी। जबकि इसके ठीक दो दिन पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस पर रोक लगा दी थी। तब इसी हाइड्रॉक्सी क्लोरोक्वीन को उपयोगी और वैज्ञानिक बताया जा रहा था। उस समय जब भारत सरकार ने अमेरिका को इसका निर्यात किया था तो देश में एक खास वर्ग भी इंटरनेट मीडिया पर सरकार की आलोचना में जुट गया था। इसी तरह दूसरी लहर के दौरान जान बचाने वाली कथित रेमडेसिविर की बड़ी चर्चा रही। निश्चित तौर पर यह दवा एंटी वायरल है। इबोला महामारी के दौरान इसका सफल परीक्षण हुआ। अत: हर चीज की एक सीमा है। अब परंपरागत दवाओं का भी इस दौरान खूब इस्तेमाल हुआ, भारत में ही नहीं, विदेथों में भी। काढ़ा और हल्दी दूध के साथ ही भारतीय देसी दवाओं का इस्तेमाल हुआ। अब ब्रिटेन और अमेरिका के कॉफी शॉप में हल्दी दूध भी मिलने लगा है। यह आयुर्वेद और हमारी पारंपरिक चिकित्सा पद्धति का कमाल है। पांचवें वेद आयुर्वेद के अलावा दादी के नुस्खे (परंपरागत तौर पर अनुभूत रामवाण घरेलू नुस्खे) हमेशा कारगर रहे हैं।

एलोपैथी एक मूर्ख, लंगड़ा विज्ञान है। सबसे पहले, हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन विफल रहा। इसके बाद रेमडेसिविर, आइवरमेक्टिन और प्लाज्मा थेरेपी फेल हो गई। फैबीफ्लू और स्टेरॉयड सहित अन्य एंटीबायोटिक्स भी विफल रहे, बाबा रामदेव ने कहा। उन्होंने आगे दावा किया कि लाखों कोविड-19 रोगियों की मृत्यु ऑक्सीजन की कमी के बजाय एलोपैथिक दवाओं के कारण हुई।

विवाद से उठे सवाल : सवाल यह है कि आईएमए जैसा संगठन बाबा पर अचानक इतना आक्रामक क्यों हुआ। एलोपैथिक के मुकाबले आयुर्वेदिक दवाओं को बाबा हमेशा श्रेष्ठ बताते रहे हैं, कोरोनिल लांच कर चुके हैं लेकिन तब आईएमए को मिर्ची नहीं लगी।

भाजपा के कई नेताओं ने योग गुरु बाबा रामदेव का समर्थन किया है तो कांग्रेस ने देथ की समस्याओं से ध्यान भटकाने वाला प्रायोजित विवाद बताया है लेकिन आयुर्वेदिक डॉक्टरों की संस्था नेशनल इंटीग्रेटेड मेडिकल एसोसिएशन ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री को लिखे पत्र में भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद की उपेक्षा पर गहरी चिंता और नाराजगी जाहिर  करते हुए पूछा है कि, ’देश में कोरोना संक्रमण से जो रिकवरी रेट ज्यादा है और मौत की दर कम है उसमें क्या सिर्फ एलोपैथिक डॉक्टरों की ही मेहनत है, आयुर्वेदिक डॉक्टरों का कोई योगदान नहीं है?’ आयुर्वेद को स्यूडोसाइंस कहना देश के साथ मानव जाति अपमान है। किसी दबाव में आने के बजाय उन तत्वों को ढूंढे जो राष्ट्रविरोधी लॉबी के इशारे पर देश की गरिमा को धूमिल करने का प्रयास कर रहे हैं। इस बीच, आईएमए के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ जे ए जयलाल ने कहा है कि बाबा के प्रति हमारे मन में कुछ भी मैला नहीं है अगर बाबा अपना बयान वापस ले लेते हैं तो नोटिस और पुलिस शिकायत दोनों वापस लेने पर विचार किया जायेगा। अचानक रुख में बदलाव भी सवालों को जन्म देता है।

बाबा रामदेव एक अंतरराष्ट्रीय हस्ती हैं तथा योग को उन्होंने देश-विदेश में लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाया है। योग भी एक ऐसी भारतीय पद्धति है जो निरोगी काया का मूलमंत्र है, जो न केवल जीवन शैली को सरल, सहज बनाती है अपितु व्यक्ति को मानसिक रूप से सशक्त बनाती है। कई रोगों से भी निजात दिला सकता है योग। कई देशों में यह प्रचलित है। एलोपैथ में फिजियोथेरापी क्या एक प्रकार का योग नहीं है। आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार, विकास, शोध में उनका संस्थान अग्रणी भूमिका निभा रहा है। उनका संस्थान कई जनकल्याणकारी कामों में सक्रिय भूमिका निभा रहा है। देश-विदेश में उनके लाखों अनुयायी हैं। प्रधानमंत्री के लेकर गृह मंत्री अमित शाह, अन्य मंत्रियों के साथ उनके व्यक्तिगत संपर्क हैं। ऐसे में यह विवाद यदि किसी निहित स्वार्थी लाबी का हो तो आश्चर्य की बात नहीं। आईएमए को यह देखना होगा कि जाने अनजाने वह किसी के होथों तो नहीं खेल रहा क्योंकि अंतत: इससे बदनामी तो देश की ही होगी और भला किसी का नहीं होगा।


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