बंगाल चुनाव-अपनी नाक कटाकर अपनों का जतरा बिगाड़ रहे नेता


लोकनाथ तिवारी

कहा जाता है कि राजनीति में दुश्मन का दुश्मन दोस्त हो यह भले ही जरूरी नहीं हो लेकिन दोस्त का दोस्त भी दुश्मन हो जाता है. चुनाव में जब तक टिकटों का बंटवारा नहीं हो जाता तब तक तो वे चुप रहते हैं लेकिन टिकटों का आवंटन होते ही अपना नाक कटाकर अपनों का ही जतरा (यात्रा) भंग करने की मुहिम में जुट जाते हैं. टीएमसी के उम्मीदवारों की घोषणा होते ही जो टिकटों से वंचित हो गये हैं, वे अपनी ही पार्टी के खिलाफ मुखर हो गये हैं. कल तक ममता की मुरीद रही सोनाली गुहा टिकट नहीं मिलने पर बीजेपी खेमे में जा चुकी हैं. यह वही सोनाली गुहा हैं जो ममता बनर्जी का पैर दबाने से भी नहीं हिचकती थी. इसी तरह 80 के पार पहुंच चुके जटु लाहिड़ी भी बीजेपी का दामन थाम चुके हैं. सोनाली और जटू की तरह टीएमसी छोड़ कर बीजेपी में जानेवालों की फेहरिस्त काफी लंबी है. 

राजनीतिक जानकार कहते हैं कि वाममोर्चा के शासनकाल में पश्चिम बंगाल में दल-बदल बहुत कम होता था. गुटबाजी चरम पर थी.  नेता अपनी लॉयलटी बदलते थे, उसी को बुरा माना जाता था. कांग्रेस में सोमेन मित्रा व प्रियरंजन दासमुंशी के समर्थकों में इस तरह का विरोध चरम पर था. इसी तरह के विरोध के कारण ममता बनर्जी को कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस का गठन करना पड़ा था. वाममोर्चा के जाने के बाद से  ही दल-बदल की संस्कृति बढ़ गयी है. 

वर्ष 2011 में तृणमूल कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद से ही कांग्रेस और वामदलों के कई नेताओं ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम लिया. अब तृणमूल कांग्रेस के नेता पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो रहे हैं. 2019 में हुए लोकसभा चुनाव से ही टीएमसी में भगदड़ मची है. ममता के सिपहसालार शुभेंदु अधिकारी, शोभन चटर्जी, राजीव बनर्जी समेत तृणमूल के दर्जन भर से अधिक विधायक भाजपा में शामिल हो चुके हैं. 

तृणमूल कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार दलबदल की संस्कृति को बढ़ावा देना उचित नहीं. टीएमसी में कांग्रेस और वामदलों से ढेर सारे विधायक व नेता आये थे. हमें ऐसा नहीं करना चाहिए था. कभी-कभी अपने समर्थन का आधार बढ़ाने के लिए आपको ऐसे फैसले लेने पड़ते हैं, जो आगे जाकर घातक साबित होते हैं.

तृणमूल और भाजपा के सूत्रों के अनुसार, दोनों पार्टियों से अभी और नेता पाला बदलते नजर आयेंगे. हालांकि, तृणमूल का कहना है कि पार्टी छोड़ने वाले विधायक ‘गद्दार’ हैं, लेकिन विपक्षी दलों और राजनीति के विशेषज्ञों का मानना है कि तृणमूल ने वही काटा है, जो उसने बोया था. तृणमूल के सांसद सुखेंदु शेखर रॉय कहते हैं कि ऐसी कोई भी पार्टी नहीं है, जो ‘आया राम गया राम’ की संस्कृति से मुक्त हो. उन्होंने कहा कि यह भारत की राजनीति की वास्तविकता है. उन्होंने भाजपा पर तृणमूल सांसदों को धमकाने का भी आरोप लगाया. तृणमूल की दल बदलने की संस्कृति का मजाक उड़ाते हुए भाजपा प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने कहा कि तृणमूल को तो कम से कम यह आरोप नहीं ही लगाने चाहिए. पिछले 10 सालों में तृणमूल ने दर्जनों विधायकों को अपने पाले में किया है. क्या यह लोकतांत्रिक तरीके से किया गया है? तृणमूल को पहले इसका जवाब देना होगा. विपक्षी दल कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों के नेता भी तृणमूल पर राज्य में दल बदलने की संस्कृति को लाने का आरोप लगाया है. 

इसे देखते हुए बीजेपी ने फिलहाल दो चरणों के लिए ही उम्मीदवारों की घोषणा की है. नेताओं के दलबदलने की प्रवृत्ति से सबक लेते हुए बीजेपी कई खेप में उम्मीदवारों की घोषणा कर रही है. वर्तमान समय में बीजेपी समर्थकों में टिकटों के लिए होड़ मची है. सूत्रों के अनुसार एक-एक विधानसभा सीट पर दर्जनों उम्मीदवार टकटकी लगाये हैं. पुराने और नये भाजपाइयों में भी मतभेद है लेकिन वे भी टिकटों के आवंटन तक ही चुप हैं. 

अब तो चुनावी डुगडुगी बज गयी है. टीएमसी, कांग्रेस, वाममोर्चा ने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है. बीजेपी भी दो चरणों के उम्मीदवारों के नामों को घोषित कर चुकी है. अब पालाबदल, दलबदल और दोस्ती-दुश्मनी का खेल शुरू हो चुका है. बीजेपी और टीएमसी की सभाओं में तो “खेला होबे” का नारा भी दिया जा रहा है. इंतजार कीजिए, अब तो बस खेल देखना ही बाकी है.

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