महाराष्ट्र और हरियाणा में आखिर क्यों आया ऐसा चुनाव परिणाम, जानें विशेषज्ञ की राय


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले विधानसभा चुनावों के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा में क्रमश: देवेंद्र फडणवीस और मनोहर लाल को मुख्यमंत्री बनाकर पूरे देश को चौंकाया था। दोनों ने अपना कार्यकाल पूरा किया. दोनों मुख्यमंत्रियों पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा, सरकार भी भ्रष्टाचार के किसी बड़े पुष्ट आरोप से मुक्त रही. दोनों प्रदेशों की अर्थ दशा भी राष्ट्रीय औसत से बेहतर है. अनुच्छेद 370 तथा जम्मू कश्मीर को संभालने का मुद्दा देशव्यापी है, लेकिन हरियाणा के लिए इसका विशेष मायने इस रूप में था कि वहां शहीद होने वालों में हरियाणवी जवान दूसरे नंबर पर थे. ये दोनों मुख्यमंत्री प्रदेश में वर्चस्व रखने वाली जाति से संबंध नहीं रखते थे. न फडणवीस मराठा थे और न मनोहर लाल जाट.

मराठा आरक्षण आंदोलन

भाजपा की सोच यह थी कि इन प्रदेशों की राजनीति को भी जातीय समीकरण से मुक्त कर राष्ट्रीयत्व हिंदुत्व, विकास तथा इससे जुड़े स्वाभाविक मुद्दों पर लाया जाए. दोनों राज्यों में यह कोशिश सफल होती दिख रही थी. महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण आंदोलन से एक बार लगा कि फडणवीस सरकार शायद इसे ठीक से हैंडल नहीं कर पाएगी. फडणवीस ने उनको आरक्षण दिया और मराठा आंदोलन खत्म हो गया. जाट आरक्षण का आंदोलन हरियाणा में हुआ। यह आंदोलन हिंसक हो गया. देश भर में इसकी आलोचना हुई, पर प्रदेश सरकार ने पुलिस को हिंसा के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई का जिम्मा देते हुए भी यही प्रकट किया कि उसे जाटों की मांग के प्रति सहानुभूति है. बावजूद जाटों के एक वर्ग का गुस्सा सरकार के प्रति कायम रहा.

जाट समुदाय का एक वर्ग सरकार के खिलाफ था

इसका संकेत यह था कि जाट समुदाय का एक वर्ग मनोहर लाल सरकार के खिलाफ था. प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं जाट नेताओं से भेंट की. उनको मनाया. बावजूद इसके जाटों का एक बड़ा वर्ग भाजपा के साथ आने को तैयार नहीं हुआ. हालांकि मनोहर लाल सरकार ने चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की भर्ती तथा स्थानांतरण का डिजिटलीकरण करके इसमें भ्रष्टाचार खत्म किया. नतीजन चतुर्थ श्रेणी में नेताओं की पैरवी बंद हो गई एवं हर जाति के योग्य लोगों को काम मिला. इसका संदेश तो अच्छा गया, लेकिन कुछ जाट नेताओं ने यह भ्रम फैलाया कि इसमें हमारा हक मारा गया है. यदि हमारा मुख्यमंत्री होता तो ऐसा नहीं होता। हालांकि उनके बीच ही एक वर्ग यह कहता रहा कि मनोहर सरकार हमारी विरोधी नहीं है. यह फैसला किसी जाति के विरोध या पक्ष में नहीं है और यही होना चाहिए.

माना जा सकता है कि इनकी संख्या कम थी. जाट हरियाणा में सत्ता पर वर्चस्व के अभ्यस्त थे, चाहे कांग्रेस के भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की सरकार हो या उसके पहले आइएनएलडी का, सबमें उनकी तूती बोलती रही. मनोहर लाल सरकार में ऐसा नहीं हुआ। उसमें भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने अपना अंतिम चुनाव कहकर भावुक कार्ड खेला, वह काम कर गया. तो जाटों के बहुमत से जहां कांग्रेस जीत सकती थी, वहां उसे मत दिया और जहां जेजेपी जीत सकती थी वहां उसे। इसका परिणाम सामने है.

शनि सिंगणापुर आंदोलन

हालांकि यह मान लेना गलत होगा कि जाटों के एक तबके के खिलाफ जाने के कारण ही भाजपा को क्षति हुई. इसके साथ कई कारकों ने भूमिका निभाई. फडणवीस सरकार ने भीमा कोरेगांव जैसे सुनियोजित हिंसक आंदोलन को जिस तरह नियंत्रित किया एवं माओवादियों के चेहरे उजागर किए उससे विचारधारा के आधार पर समर्थन करने वाले परंपरागत मतदाताओं का समर्थन बना रहा. शनि सिंगणापुर आंदोलन को भी सरकार ने नियंत्रण से बाहर नहीं आने दिया. भ्रष्टाचार के विरुद्ध भी महाराष्ट्र सरकार ने कई मामलों में तेजी से काम किया। मनोहर सरकार ने भी भूमि आवंटन घोटाला में ढींगरा आयोग बनाया जिसने रॉबर्ट वाड्रा सहित भूपेन्द्र सिंह हुड्डा और कई नेताओं एवं अधिकारियों को कठघरे में खड़ा किया.

विधानसभा चुनाव में वाड्रा का भूमि व्यवसाय भ्रष्टाचार

हुड्डा न्यायालय में चले गए एवं उस रिपोर्ट के सार्वजनिक करने पर रोक लग गई। ईडी ने कार्रवाई की है, पर प्रदेश में संदेश यह गया कि मनोहर लाल सरकार ने भ्रष्टाचारियों पर जिस तरह कार्रवाई करना चाहिए वैसे नहीं की. वर्ष 2014 के लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव में वाड्रा का भूमि व्यवसाय भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा मुद्दा था। मनोहर लाल कहते रहे कि हमारा उद्देश्य भ्रष्टाचार की संभावना को खत्म करना, तथा कानून सम्मत कार्रवाई करना है न कि किसी व्यक्ति विशेष को निशाना बनाना, लेकिन इस संदेश को सभी ने एक ही अनुसार नहीं लिया. स्वयं उनके कार्यकर्ता भी इस विषय पर सरकार से सहमत नहीं थे.

इन सबके बावजूद भाजपा का प्रदर्शन संतोषजनक हो सकता था यदि उसने उम्मीदवारों के चयन में सतर्कता बरती होती तथा पार्टी के अंदर के असंतोष के शमन का कदम उठाया होता. विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दों व उम्मीदवारों की भी भूमिका होती है. मनोहर सरकार के ज्यादातर मंत्रियों को लोगों का एक तबका बेहतर प्रदर्शन करने वाला नहीं मान रहा था. स्वयं खट्टर के व्यवहार को पार्टी कार्यकर्ता और नेता आलोचना करते थे. उनके कई मंत्रियों के व्यवहार की शिकायत केंद्रीय नेतृत्व से भी की गई। कई क्षेत्रों में लोग स्थानीय विधायक तथा उम्मीदवारों के प्रति असंतोष प्रकट करते थे. भाजपा के सदस्य कह रहे थे कि उम्मीदवारों के चयन में गलतियां हुई हैं. अगर चुनाव में किसी पार्टी के कार्यकर्ता और स्थानीय पदाधिकारी नाराज हो जाएं तो फिर उसका बेहतर प्रदर्शन करना मुश्किल होता है. कार्यकर्ता ही मतदान के दिन अपने मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाते हैं. दोनों राज्यों में भाजपा कार्यकर्ताओं- नेताओं के अंदर असंतोष था.

महाराष्ट्र में शिवेसना के साथ गठबंधन के कारण कुछ विधानसभा क्षेत्रों में विद्रोह हुआ. भाजपा का एक तबका विधानसभा चुनाव में शिवेसना से गठबंधन नहीं चाहता था. फिर कोंकण क्षेत्र में नारायण राणे को खुली स्वतंत्रता देने के खिलाफ शिवेसना ने मोर्चा खोला, उनके बेटे के खिलाफ अपना उम्मीदवार उतार दिया तो अनेक जगह निर्दलीय के रूप में उम्मीदवार मैदान में थे. निर्दलीय ने भाजपा को काफी ज्यादा तथा शिवेसना को भी कुछ नुकसान पहुंचाया है. हरियाणा में भी यही स्थिति थी. लोकसभा चुनावमें नरेंद्र मोदी का नाम सबको एकजुट करने के लिए काफी था. इसलिए एकपक्षीय चुनाव परिणाम आया. विधानसभा चुनाव में ऐसा नहीं था. कार्यकर्ताओं के उदासीन होने का परिणाम हरियाणा में आठ प्रतिशत मतदान कम होने के रूप में सामने आया. भाजपा के प्रदर्शन खराब होने के पीछे यह सबसे बड़ा कारण था.
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