Kargil Vijay Diwas: मां से पिता की शहादत के किस्से सुन बेटा भी बना फौजी


आगामी 26 जुलाई को हम कारगिल विजय की 20वीं सालगिरह मनाएंगे। जांबाजों को नमन करेंगे, जिनके शौर्य, पराक्रम और बलिदान के बूते हमारा सिर ऊंचा है। 60 दिन चले 'ऑपरेशन विजय' में हमारे 527 जवान शहीद हुए थे और 1363 घायल। देशभक्ति जिनके खून में हिलोरें मारती है, आइये मिलते हैं कारगिल शहीदों के उन बेटों से जिन्होंने पिता को श्रद्धांजलि स्वरूप जवानी देश के नाम लिख दी है।

बीस बरस पहले कारगिल की जिन चोटियों को पाकिस्तान के धूर्ततापूर्ण कब्जे से मुक्त करवाते पिता ने सर्वोच्च बलिदान दे दिया था, वहां दुश्मन के नापाक कदम फिर न पड़ें, इसलिए अब शहीद का बेटा हाथ में बंदूक लिए सीमा की निगहबानी कर रहा है। टाइगर हिल पर दुश्मन को धूल चटाने वाले जम्मू जिले के सीमांत क्षेत्र बिश्नाह के गांव मखनपुर के सेना मेडल विजेता शहीद नायब सूबेदार रवैल सिंह के सुपुत्र बख्तावर पिता के पद्चिन्हों पर चल रहे हैं। पिता की शहादत के समय बख्तावर की उम्र महज आठ साल थी। मां से पिता की वीरता के किस्से सुन वह जवान हुए। और मां की प्रेरणा से फौजी बन पिता को सच्ची श्रद्धांजली दी।

बख्तावर कहते हैं, 20 वर्ष पूर्व कारगिल विजय इतनी आसान नहीं थी। दुश्मन ऊंची चोटी पर बैठ गोले दाग रहा था और भारतीय जवान सीधे निशाने पर थे। टाइगर हिल पर फिर से तिरंगा फहराने के लिए पिता सहित कई जवान हंसते-हंसते कुर्बान हो गए, मगर देश के दुश्मनों को खदेड़ कर ही दम लिया। मुझे याद है कि सिख रेजिमेंट के नायब सूबेदार मेरे पिता रवैल सिंह का पार्थिव जब तिरंगे में ढंक घर लाया गया तो मां की क्या प्रतिक्रिया थी।

उन्होंने आंसुओं को थाम लिया था। उनकी आंखों में मैंने जो पिता के लिए जो गर्व और जज्बा देखा, वह मुझे आज भी प्रेरित करता है। कर्तव्य, वीरता और साहस का संदेश देता है। सूबेदर रवैल सिंह के साथ उनके छोटे भाई मेरे चाचा लाड सिंह भी कारगिल युद्ध के दौरान मोर्चे पर तैनात थे। वह गवाह हैं कि किस तरह मेरे पिता ने पाकिस्तान के कई सैनिकों को मार कर शहादत पाई। मैंने पिता की शहादत का किस्सा उनसे सुना।

परिजन और गांव वाले बताते हैं, मां सुरेंद्र कौर के सामने पहाड़ सी जिंदगी थी। मासूम बच्चों के लालन-पालन का जिम्मा भी। लेकिन वह डरी नहीं। जब शहीद का अंतिम संस्कार हो रहा था तो प्रण लिया कि देशसेवा का सिलसिला अब थमेगा नहीं। बच्चों को भी सेना में ही भेजेंगी। वह बच्चों को पिता की बहादुरी के किस्से सुनाया करतीं। पिता के हौसले व जज्बे और मां की प्रेरणा ने बेटे बख्तावर सिंह कीरगों में वो जोश भरा जो लहू बनकर दौड़ा। आज बख्तावर भी सिख रेजीमेंट में सिपाही बनकर देश के पूर्वोत्तर में देश की रक्षा में सीना ताने खड़ा है। वह पिता की तरह ही कारगिल के द्रास में भी ड्यूटी कर चुके हैं। शहीद रवैल सिंह आज भी बेटे बख्तावर ही नहीं बल्कि क्षेत्र के युवाओं के भी प्रेरणास्त्रोत हैं। आमजन और युवा उनकी याद में बने स्मारक पर लगी फोटो के आगे शीश झुकाते हैं।
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